ईशावास्योपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद का 40वां अध्याय है, जिसमें केवल 18 मंत्र हैं और यह वेदांत का सार माना जाता है। यह उपनिषद् ज्ञान द्वारा मोक्ष प्राप्त करने पर जोर देता है, जिसमें सभी प्राणियों में परमात्मा का अंश जानकर अहिंसा की शिक्षा दी गई है, और धन के अहंकार को त्यागने की बात कही गई है। यह ‘ईशावास्यमिदं सर्वम्’ से शुरू होता है, जिसका अर्थ है कि यह संपूर्ण ब्रह्मांड ईश्वर का ही निवास है।
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ईश्वर की सर्वव्यापकता:
उपनिषद् का प्रारंभिक श्लोक ‘ईशावास्यमिदं सर्वम्’ बताता है कि यह पूरी दुनिया ईश्वर द्वारा व्याप्त है और उसी की है।
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अहंकार का त्याग:
पहला मंत्र यह कहकर संपत्ति के अहंकार को त्यागने की सलाह देता है कि यह सब ईश्वर का ही है, और किसी की भी वस्तु पर लालच नहीं करना चाहिए (‘मा गृधः कस्यस्वित् धनम्’)।
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कर्म और जीवन:
यह उपनिषद् दीर्घायु की कामना के साथ-साथ अनासक्त भाव से कर्म करने की शिक्षा देता है, जिससे मनुष्य कर्म से बंधा नहीं रहता।
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ज्ञान और अज्ञान:
यह ज्ञान और अज्ञान दोनों को एक साथ समझने की बात करता है, ताकि मृत्यु को पार करके अमरता को प्राप्त किया जा सके।
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आत्म-ज्ञान:
यह आत्मा के नश्वर स्वरूप और परमात्मा के अतिसूक्ष्म स्वरूप का वर्णन करता है।
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प्रार्थना:
इसके अंतिम मंत्रों में, ऋषि परमेश्वर से अपनी किरणों को फैलाने और अपना कल्याणकारी रूप प्रकट करने की प्रार्थना करते हैं, ताकि वे परमात्मा के दर्शन कर सकें।
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अंतिम यात्रा:अंतिम श्लोकों में शरीर के नश्वर होने की बात कही गई है और परमात्मा को स्मरण करते हुए आगे बढ़ने के लिए प्रार्थना की गई है।
 


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